ब्रह्माकुमारी शिवानी: रक्षाबंधन का पारंपरिक स्वरूप भाई-बहन के पवित्र रिश्ते का उत्सव है। यह प्रेम, विश्वास, सम्मान और सुरक्षा का प्रतीक है। लेकिन आज जब संसार भय, दुख और संघर्ष की नकारात्मक ऊर्जा से घिरा है, तब यह पर्व हमें केवल एक धागा बांधने का नहीं, संपूर्ण मानवता और प्रकृति की रक्षा के लिए स्वयं एक रक्षा-सूत्र बनने का निमंत्रण देता है।
जब हम क्रोध के बजाय शांति, अस्वीकृति के बजाय स्वीकृति और तुलना की जगह संतोष को चुनते हैं, तो हम पृथ्वी की ऊर्जा को एकता, सहनशीलता और सद्भाव की ओर ले जाते हैं। हमारी यह ऊर्जा प्रकृति के पांचों तत्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश में समाहित हो जाती है। इसलिए जब हमारा मन शांत, प्रेमपूर्ण और करुणामय होता है, तो प्रकृति भी संतुलित और शुद्ध होती है।
विवेकपूर्ण विचार करें, मधुर बोलें और करुणामय कर्म करें। इसके लिए हमें शांति, शक्ति और प्रेम के शाश्वत स्रोत परमात्मा से गहरा संबंध बनाना होगा। यह दिव्य संबंध हमें ऊर्जावान और स्थिर बनाता है। प्रत्येक दिन की शुरुआत सरल ध्यान से करें, ‘मैं एक पवित्र आत्मा हूं। मेरी हर सोच और वाणी एक आशीर्वाद है। मैं शांत और स्थिर आत्मा हूं। मैं प्रेममयी हूं। सभी को स्वीकार करता/करती हूं। मैं शक्तिशाली आत्मा हूं। अतीत को छोड़ चुका/चुकी हूं।
क्षमा करता/करती हूं। मैं परमात्मा से जुड़ा/जुड़ी हूं। प्रेम और शांति की ऊर्जा पूरे संसार में फैला रहा/रही हूं। यह विश्व अब एक स्वर्णिम युग बन गया है, जहां शांति धर्म है, प्रेम भाषा है, सत्य कर्म, एकता संस्कृति और आनंद जीवनशैली है।' इस ध्यान को दिनचर्या में शामिल करें। चेक लिस्ट बनाकर स्वयं को परखते रहें कि क्या-क्या अपने अंदर समेट पाया। रक्षाबंधन की परंपराएं यदि जागरूकता और आत्मिक भाव से निभाई जाएं, तो वे हमारी ऊर्जा को ऊंचाई प्रदान करती हैं। अभिवादन - आपकी हर भावना और विचार एक आशीर्वाद हो, जैसे आप एक शक्तिशाली आत्मा हैं।
यह विचार सामने वाले को भी ऊर्जावान बनाता है। तिलक - आत्मिक पहचान का स्मरण है, यानी ‘मैं आत्मा हूं, आप भी आत्मा हैं।’ यह अहंकार और क्रोध को मिटाकर करुणा और समरसता लाता है। राखी रक्षा शब्द से ही निकला है। ऐसा संकल्प लें, जो आपकी चेतना को गिरने से रोके। मिठाई, यानी केवल वही बोलें जो मधुर और हितकर हो। आलोचना, निंदा और चुगली से दूर रहें। स्वयं को सादगी से भरे जीवन का उपहार दें। हर खरीद से पहले स्वयं से पूछें, क्या पृथ्वी इसे सह सकती है?
इस रक्षाबंधन को एक नए आत्मिक संकल्प का पर्व बनाएं, तभी इस धरती की सही मायने में रक्षा हो सकती है।
जब हम क्रोध के बजाय शांति, अस्वीकृति के बजाय स्वीकृति और तुलना की जगह संतोष को चुनते हैं, तो हम पृथ्वी की ऊर्जा को एकता, सहनशीलता और सद्भाव की ओर ले जाते हैं। हमारी यह ऊर्जा प्रकृति के पांचों तत्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश में समाहित हो जाती है। इसलिए जब हमारा मन शांत, प्रेमपूर्ण और करुणामय होता है, तो प्रकृति भी संतुलित और शुद्ध होती है।
विवेकपूर्ण विचार करें, मधुर बोलें और करुणामय कर्म करें। इसके लिए हमें शांति, शक्ति और प्रेम के शाश्वत स्रोत परमात्मा से गहरा संबंध बनाना होगा। यह दिव्य संबंध हमें ऊर्जावान और स्थिर बनाता है। प्रत्येक दिन की शुरुआत सरल ध्यान से करें, ‘मैं एक पवित्र आत्मा हूं। मेरी हर सोच और वाणी एक आशीर्वाद है। मैं शांत और स्थिर आत्मा हूं। मैं प्रेममयी हूं। सभी को स्वीकार करता/करती हूं। मैं शक्तिशाली आत्मा हूं। अतीत को छोड़ चुका/चुकी हूं।
क्षमा करता/करती हूं। मैं परमात्मा से जुड़ा/जुड़ी हूं। प्रेम और शांति की ऊर्जा पूरे संसार में फैला रहा/रही हूं। यह विश्व अब एक स्वर्णिम युग बन गया है, जहां शांति धर्म है, प्रेम भाषा है, सत्य कर्म, एकता संस्कृति और आनंद जीवनशैली है।' इस ध्यान को दिनचर्या में शामिल करें। चेक लिस्ट बनाकर स्वयं को परखते रहें कि क्या-क्या अपने अंदर समेट पाया। रक्षाबंधन की परंपराएं यदि जागरूकता और आत्मिक भाव से निभाई जाएं, तो वे हमारी ऊर्जा को ऊंचाई प्रदान करती हैं। अभिवादन - आपकी हर भावना और विचार एक आशीर्वाद हो, जैसे आप एक शक्तिशाली आत्मा हैं।
यह विचार सामने वाले को भी ऊर्जावान बनाता है। तिलक - आत्मिक पहचान का स्मरण है, यानी ‘मैं आत्मा हूं, आप भी आत्मा हैं।’ यह अहंकार और क्रोध को मिटाकर करुणा और समरसता लाता है। राखी रक्षा शब्द से ही निकला है। ऐसा संकल्प लें, जो आपकी चेतना को गिरने से रोके। मिठाई, यानी केवल वही बोलें जो मधुर और हितकर हो। आलोचना, निंदा और चुगली से दूर रहें। स्वयं को सादगी से भरे जीवन का उपहार दें। हर खरीद से पहले स्वयं से पूछें, क्या पृथ्वी इसे सह सकती है?
इस रक्षाबंधन को एक नए आत्मिक संकल्प का पर्व बनाएं, तभी इस धरती की सही मायने में रक्षा हो सकती है।
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