नई दिल्ली/बीजिंग: लड़ाकू विमानों की दुनिया लगातार बदल रही है और कोई लड़ाकू विमान कितना ताकतवर है, ये उसकी इंजन की क्षमता पर निर्भर करता है। किसी फाइटर जेट की सुपरसोनिक स्पीड की क्षमता हो, स्टील्थ ऑपरेशन या एयर डॉमिनेंस में महारथी बनना हो, इन सबकी नींव एक शक्तिशाली इंजन होता है। आज जब भारत आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तब फाइटर जेट इंजन टेक्नोलॉजी का सवाल सबसे अहम बन गया है। लेकिन लड़ाकू इंजन बनाने की दिशा में भारत अब तक चीन, अमेरिका और रूस से काफी पीछे है। सारी दुनिया के स्पेशल रिपोर्ट में आज हम लड़ाकू विमानों के इंजन पर बात करेंगे और जानने की कोशिश करेंगे कि भारत के इस रेस में पीछे रहने की वजह क्या है?दरअसल, लड़ाकू विमानों का इंजन बनना रॉकेट के इंजन बनाने से भी ज्यादा मुश्किल माना जाता है, क्योंकि फाइटर जेट्स लगातार मूवमेंट में होते हैं और उस हिसाब से इंजन बनाना अत्यंत मुश्किल हो जाता है। दुनिया में सिर्फ अमेरिका, रूस, फ्रांस और अब चीन जैसे ही देश हैं, जिन्होंने लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने में कामयाबी हासिल की है। बात अगर चीन की करें, तो भले ही वो भारत के लिए 'दुश्मन' मुल्क है, लेकिन वो कई दशक पहले लड़ाकू विमानों के इंजन स्वदेशी होने के महत्व को समझ गया था और इसलीए उसने स्वदेशी इंजन बनाने के लिए अरबों डॉलर झोंक दिए। रिसर्च एंड डेवलपमेंट में वो बार बार फेल हुआ, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने अपनी कंपनियों के लिए खजाना खोल दिया, इको-सिस्टम का निर्माण किया, हर तरह से हाथ-पैर मारे, यहां तक की टेक्नोलॉजी की भी चोरी की, फिर भी वो कई बार नाकाम रहा। लेकिन कई दशकों की मेहनत के बाद उसने लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने में आखिरकार कामयाबी हासिल कर ही ली। लड़ाकू विमानों का इंजन बनाना कितना मुश्किल?फाइटर जेट्स का इंजन बनाना इंजीनियरिंग की दुनिया में सबसे ज्यादा मुश्किल काम माना जाता है। इसकी टेक्नोलॉजी अत्यंत मुश्किल और इसके रिसर्च एंड डेवलपमेंट में बेहिसाब पैसा खर्च होता है। यही वजह है कि अमेरिका, रूस और फ्रांस के अलावा कोई भी देश एडवांस फाइटर जेट इंजन नहीं बना पाया है। लड़ाकू विमान का इंजन बनाने में इंजीनियर्स को कई मुश्किलों से गुजरना पड़ता है। जैसे...
यही वजह है कि भारत जैसे देशों के लिए इंजन बनाना अत्यंत मुश्किल काम है। भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था और जहां की आबादी 140 करोड़ से ज्यादा हो, वहां की सरकारों के लिए इंजन बनाने के लिए अरबों डॉलर खर्च करना मुश्किल फैसला हो जाता है। नवभारत टाइम्स से पिछले दिनों बात करते हुए भारत के वायस एयर चीफ मार्शल संजय भटनागर ने भी कहा था कि 'HAL को लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने के लिए कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और सबसे बड़ी दिक्कत टेक्नोलॉजी को लेकर है। इंजन बनाने का काम काफी क्रिटिकल होता है और चीन भी एडवांस इंजन बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है।' आपको बता दें कि तेजस फाइटर जेट के लिए इंजन अमेरिका से आना था, लेकिन अमेरिकी कंपनी जीई लगातार देर करती रही, जिसकी वजह से तेजस अपने सयम सीमा से बार बार चूकता रहा। इसके अलावा फ्रांस भी फाइटर जेट की इंजन टेक्नोलॉजी शेयर करने के लिए तैयार नहीं है। फ्रांस राफेल फाइटर जेट का सोर्स कोड भी शेयर करने के लिए तैयार नहीं है। चीन ने कैसे बना लिया लड़ाकू विमानों का इंजन?लड़ाकू विमानों के इंजन के आधार पर अगर हम अमेरिका, रूस और चीन को देखें तो अमेरिकी इंजन को वेरी-हाई क्वालिटी, रूसी इंजन को हाई क्वालिटी और चीनी इंजन को मीडियम क्वालिटी में रख सकते हैं। लेकिन चीन की कोशिशों की तारीफ होनी चाहिए।
भारत का कावेरी इंजन प्रोजेक्ट क्यों फेल हुआ?भारत ने 1986 में कावेरी इंजन का प्रोजेक्ट शुरू किया था, जिसका मकसद लड़ाकू विमानों के लिए इंजन बनाना था। लेकिन हैरानी की बात ये है कि इस प्रोजेक्ट में काफी कम निवेश किया गया। चीन ने जहां अरबों डॉलर खर्च कर दिए, वहीं कावेरी प्रोजेक्ट का बजट कुल मिलाकर सिर्फ 350-500 मिलियन डॉलर के करीब रहा।
लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने में भारत का भविष्य क्या है?भारत अब लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने की दिशा में तेजी से काम कर रहा है। हालांकि फिर भी हम चीन के मुकाबले कम से कम 10 से 15 साल पीछे हैं। अगर विदेशी कंपनियों के साथ डील होती है तो इस समय को 5 साल कम किया जा सकता है। भारत इस वक्त फ्रांस के Safran के साथ AMCA (एडवांस मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट) प्रोजेक्ट के लिए नए इंजन पर काम चल रहा है। लेकिन भारत को अभी भी HAL, GTRE और प्राइवेट कंपनियों को इंजन टेक्नोलॉजी में निवेश और R&D को प्राथमिकता देनी होगी। भारत को हर हाल में अरबों डॉलर का निवेश करना होगा। क्योंकि अमेरिका और चीन अब छठी पीढ़ी का लड़ाकू विमान बनाने की शुरूआत कर चुके हैं। ऐसे में भारत अब पीछे नहीं रह सकता है और ना ही विदेशी कंपनियों पर निर्भर रह सकता है। भारत को AMCA और TEDBF जैसे भविष्य के प्लेटफॉर्म के लिए हर हाल में आत्मनिर्भर इंजन बनाना ही होगा। इसके लिए राजनीतिक और फंडिंग कमिटमेंट जरूरी है।लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने की दिशा में भारत काफी शुरूआती स्तर पर है, जबकि चीन ने स्टील्थ लड़ाकू विमानों का इंजन बनाना शुरू कर दिया है। हालांकि भारत की रणनीतिक सोच अब बदल रही है और फ्रांस जैसे देशों से टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की दिशा में मजबूत बातचीत की जा रही है। लेकिन अगर भारत को वाकई आत्मनिर्भर बनना है और स्वेदेशी तौर पर फाइटर जेट्स के इंजन बनाने हैं, तो इंजीनियरिंग, रिसर्च एंड डेवलपमेंट और इंडस्ट्री को एकसाथ जोड़ते हुए एक चीन की तरह मिशन चलाने की जरूरत होगी और तब हम अगले 10 सालों में स्वदेशी इंजन बनाने में कामयाबी हासिल कर सकते हैं।
- हाई-टेम्परेचर मटीरियल्स: इंजन का टरबाइन सेक्शन 1,600 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान बर्दाश्त कर सके।
- एडवांस्ड मेटलर्जी: सुपरअलॉय, सिरेमिक कोटिंग्स और कम्पोजिट्स जैसी टेक्नोलॉजी होना जरूरी
- माइक्रोन-लेवल टॉलरेंस: टरबाइन ब्लेड का आकार या वजन जरा भी गलत हुआ, तो इंजन फेल हो सकता है।
- लॉन्ग-टर्म टेस्टिंग: एक फाइटर इंजन को सर्विस में लाने से पहले हजारों घंटे की टेस्टिंग और सर्टिफिकेशन जरूरी होता है। मिसाइलों से निकलने वाले धुएं के भरने से भी इंजन पर असर पड़ता है, लिहाजा इसका टेस्टिंग सैकड़ों तरह से अलग अलग बार किया जाता है।
- बेहिसाब पैसा- चीन ने लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने के लिए दशकों से काम किया है और बेहिसाब पैसा बहाया है। हालांकि कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है, लेकिन अनुमानों के मुताबिक चीन ने पिछले 30 सालों में लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने में 25 से 30 अरब डॉलर खर्च किए हैं। और अब जाकर चीन पांचवीं पीढ़ी का लड़ाकू इंजन बनाने के करीब पहुंचा है। अभी भी उसे पूरी तरह से कामयाबी नहीं मिली है।
- रिवर्स इंजीनियरिंग और चोरी: चीन ने रूस के AL-31 और अमेरिका के F119 इंजन की टेक्नोलॉजी को रिवर्स इंजीनियर करने की कोशिश की और बहुत हद तक वो कामयाब भी रहा। साइबर जासूसी का भी सहारा उसने लिया है।
- प्रोडक्शन लाइन और वैरिएशन: चीन के पास अब WS-10 इंजन की बड़ी पैमाने पर प्रोडक्शन क्षमता है, जो J-10, J-11 और J-16 जैसे फाइटर्स जेट में इस्तेमाल हो रही है। चीन दावा करता है कि उसने WS-15 इंजन भी बना लिया है, जिसका इस्तेमाल वो अब पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान J-20 में रूसी इंजन को रिप्लेस करने के लिए कर रहा है।
- झोंक दी पूरी ताकत: चीन ने लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने के लिए सैकड़ों इंजीनियरों को काम में शामिल किया। अरबों डॉलर बहाए, दशकों तक मेहनत की। इसके अलावा सरकारी कंपनियों ने विश्वविद्यालयों और रिसर्च संस्थानों के साथ मिलकर टर्बाइन टेक्नोलॉजी को तेजी से एडवांस बनाने का काम किया है।
- टेक्नोलॉजी: DRDO के गैस टर्बाइन रिसर्च स्टेब्लिसमेंट (GTRE) ने 1986 में कावेरी इंजन बनाने की शुरुआत की थी। लेकिन हाई-टेम्परेचर मटीरियल और टरबाइन ब्लेड जैसी क्रिटिकल टेक्नोलॉजी विकसित नहीं हो पाईं।
- टेस्टिंग में नाकामी: कावेरी इंजन में कंप्रेशर स्टालिंग, थ्रस्ट की कमी और ओवरहीटिंग जैसी समस्याएं सामने आईं। कावेरी इंजन को तब कामयाब माना जाता, जब ये इंजन 90 से 100 किलो न्यूटन थ्रस्ट जेनरेट कर लेती, लेकिन कावेरी इंजन सिर्फ 70 से 80 kn थ्रस्ट ही जेनरेट कर पाई। अब कावेरी को फिर से शुरू किया गया है और उस इंजन को UAV में इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है। इस प्रोजेक्ट के कामयाब होने की पूरी उम्मीद है।
- फ्रांस से मदद ले रहा भारत: भारत अब फ्रांस की मदद से लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने की कोशिश कर रहा है। अगर फ्रांस से पूरी मदद मिलती है तो लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने की दिशा में हम तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।

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