नई दिल्ली: प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना, गुरु और कोरियोग्राफर शमा भाटे पुणे में रहती हैं। विख्यात कथक नृत्यांगना रोहिणी भाटे की शिष्या और बहू शमा भाटे की महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय कथक के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने बड़ी संख्या में शिष्याएं तैयार की हैं, जिन्होंने पिछले दिनों उनके 75 वर्ष होने पर भव्य अमृतोत्सव आयोजित किया।
समारोह में उन्हें पंडित दीनानाथ मंगेशकर अवॉर्ड देने की घोषणा भी हुई। कथक यात्रा पर उनकी मराठी पुस्तक 'नृत्यमय जग.. नर्तनाचा धर्म..' भी इन्हीं दिनों आई है। 6 अक्टूबर 1950 को जन्मीं शमा भाटे हाल में ही कथक और बैले महोत्सव में भाग लेकर टोरंटो से लौटी हैं। उनसे आलोक पराड़कर की बातचीत के खास अंश :
उम्र के 75 साल और इससे कुछ कम वर्षों की कथक की लंबी यात्रा, पीछे मुड़कर देखते हुए कैसा लगता है ?
जब 7 साल की उम्र में कथक सीखना शुरू किया तो कोई इरादा नहीं था कि जीवन में यही काम करूंगी, लेकिन रोहिणी जी की प्रेरणा से मैंने यह निर्णय किया। उन्होंने कथक का ऐसा चाव लगा दिया कि जीवन का यही उद्देश्य हो गया। वह मेरी आदर्श हैं। जैसे-जैसे मैं कथक की गहराई में जाती गई, मुझे समझ में आने लगा कि यह कभी न समाप्त होने वाला सागर है।
लोकप्रिय बनाने में गुरु की तरह आपने भी कठिन परिश्रम किया है, मराठी भाषियों के बीच इसके प्रचार-प्रसार में कैसी मुश्किलें आती हैं ?
वास्तव में बहुत दिक्कत नहीं आती, क्योंकि संगीत की अपनी भाषा है। हां, यह जरूर है कि उसके क्षेत्रीय संदर्भ हो सकते हैं। महाराष्ट्र, उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य है, लेकिन यहां का रहन-सहन, पर्व-त्योहार, भाषा-लिपि उत्तर भारत से बहुत भिन्न नहीं।
सबसे बड़ी बात कि यहां हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत है, कर्नाटक संगीत का प्रचार नहीं है। मुंबई-पुणे में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कितने ही दिग्गज कलाकार हैं। इससे कथक के प्रचार-प्रसार में आसानी हुई।
आपने पंडित बिरजू महाराज और पंडित मोहनराव कल्याणपुरकर से भी नृत्य की शिक्षा ग्रहण की है। तीनों ही नृत्य गुरुओं की कथक के प्रति दृष्टि में क्या भिन्नता आपने देखी ?
पंडित मोहनराव कल्याणपुरकर जी से कभी सीधे सीखने का अवसर नहीं मिला, लेकिन वह मेरी गुरु रोहिणी जी के पास आते थे और अपने गुरु के माध्यम से ही मुझे उनके सबक मिलते रहे। मैं उनसे बहुत प्रभावित हुई। मैं जब 16 वर्ष की थी तभी से पंडित बिरजू महाराज जी का नाम सुन रखा था।
उनसे काफी कुछ सीखने को मिला
पंडित जी वर्ष में एक बार पुणे जरूर आते थे। उनसे काफी कुछ सीखने को मिला, लेकिन मैं उनकी नृत्य शैली को नहीं अपनाती क्योंकि मेरी काफी लंबी तालीम अपने गुरुओं से हुई है। मैंने प्रसिद्ध तबला वादक पंडित सुरेश तलवलकर जी से लय-ताल की शिक्षा भी पाई है।
अपने नृत्य में आपने लगातार प्रयोग किए हैं, जिनमें कई बार विश्व संगीत का उपयोग भी होता है, मसलन जैज रचनाओं पर की गई नृत्य संरचनाएं। आपकी कुछ प्रस्तुतियों में कला के दूसरे माध्यम भी शामिल हैं। क्या ऐसी उदारता कथक के स्वभाव को स्वीकार्य होती है, इससे उसके मूल स्वरूप को कोई खतरा नहीं होता ?
सभी बड़े कलाकारों ने परंपरा को एक प्रवाह के रूप में ही माना है और इसमें कलाकार को अपना कोना मिलना ही चाहिए। मैंने कई ऐसे तालों का, बंदिशों का, तरानों का प्रयोग किया जो मैंने सीखा नहीं था। मैंने रातंजनकर जी की, अभिषेकी जी की, जसराज जी की बंदिशों का प्रयोग किया क्योंकि मेरा मानना है कि ये चीजें भले ही कथक में अभी तक न आई हों लेकिन संगीत के व्यापक दायरे में तो शामिल हैं हीं।
नई दृष्टि से देखने का अवसर मिला
मैंने विश्व संगीत के साथ कम से कम 65 कार्यक्रम किए और मुझे लगा कि संगीत की भाषा तो सार्वभौमिक है। उनकी जो स्वरावली या ताल है, उससे मुझे कथक को नई दृष्टि से देखने का अवसर मिला। मैंने अपने प्रयोग हमेशा संगीत विद्वानों को दिखाए, उनसे चर्चा की।
सभी कलाएं आपस में बहनें
बात उनकी स्वीकृति से ही मैं इन रास्तों पर आगे बढ़ी। जहां तक दूसरे कला माध्यमों को शामिल करने की है, मुझे लगता है कि एक पड़ाव पर जाकर ऐसा है कि सभी कलाएं आपस में बहनें हैं। इन प्रयोगों लगता से मेरे कथक की भाषा और समृद्ध होती गई।
बताते हैं कि शंभू महाराज कक्षा शुरू करने से पहले विद्यार्थियों को उस दिन की खबरें बताते यानी वह उन्हें समाज में हो रही चीजों के बारे में सजग रखना चाहते थे। अक्सर कथक कृष्ण की कथाओं तक ही सीमित दिखता है, जबकि आप अपनी नृत्य प्रस्तुतियों में नए-नए विषय उठाती हैं। शास्त्रीय नृत्यों को समकालीन समाज के विषयों से परहेज क्यों रहा है ?
कथक का दायरा बहुत बड़ा है, इसे सीमित नहीं करना चाहिए। सवाल यह है कि हम किस नजरिए से देख रहे हैं। कथक कई दौर से गुजरा है, मुगलों के शासन में इसमें कई परिवर्तन हुए। मेरा मानना है कि इन सबसे गुजर कर कथक लचीला हो गया।
संगीत चिकित्सा पर कई लोग काम कर रहे हैं। आपने भी मानसिक रूप से अविकसित बच्चों के बीच कथक के साथ काम किया है। संगीत चिकित्सा का क्या भविष्य देखती हैं?
इस दिशा में बहुत काम करने की आवश्यकता है। कला से एकाग्रता बढ़ती है, सम्प्रेषण बढ़ता है, समन्वय बढ़ता है। ऐसे बच्चों में इन्हीं बातों की तो कमी है। मुझे बहुत अच्छे परिणाम मिले। संगीत प्रदर्शन कला तक ही सीमित नहीं है। इसमें बहुत संभावनाएं हैं।
समारोह में उन्हें पंडित दीनानाथ मंगेशकर अवॉर्ड देने की घोषणा भी हुई। कथक यात्रा पर उनकी मराठी पुस्तक 'नृत्यमय जग.. नर्तनाचा धर्म..' भी इन्हीं दिनों आई है। 6 अक्टूबर 1950 को जन्मीं शमा भाटे हाल में ही कथक और बैले महोत्सव में भाग लेकर टोरंटो से लौटी हैं। उनसे आलोक पराड़कर की बातचीत के खास अंश :
उम्र के 75 साल और इससे कुछ कम वर्षों की कथक की लंबी यात्रा, पीछे मुड़कर देखते हुए कैसा लगता है ?
जब 7 साल की उम्र में कथक सीखना शुरू किया तो कोई इरादा नहीं था कि जीवन में यही काम करूंगी, लेकिन रोहिणी जी की प्रेरणा से मैंने यह निर्णय किया। उन्होंने कथक का ऐसा चाव लगा दिया कि जीवन का यही उद्देश्य हो गया। वह मेरी आदर्श हैं। जैसे-जैसे मैं कथक की गहराई में जाती गई, मुझे समझ में आने लगा कि यह कभी न समाप्त होने वाला सागर है।
लोकप्रिय बनाने में गुरु की तरह आपने भी कठिन परिश्रम किया है, मराठी भाषियों के बीच इसके प्रचार-प्रसार में कैसी मुश्किलें आती हैं ?
वास्तव में बहुत दिक्कत नहीं आती, क्योंकि संगीत की अपनी भाषा है। हां, यह जरूर है कि उसके क्षेत्रीय संदर्भ हो सकते हैं। महाराष्ट्र, उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य है, लेकिन यहां का रहन-सहन, पर्व-त्योहार, भाषा-लिपि उत्तर भारत से बहुत भिन्न नहीं।
सबसे बड़ी बात कि यहां हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत है, कर्नाटक संगीत का प्रचार नहीं है। मुंबई-पुणे में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कितने ही दिग्गज कलाकार हैं। इससे कथक के प्रचार-प्रसार में आसानी हुई।
आपने पंडित बिरजू महाराज और पंडित मोहनराव कल्याणपुरकर से भी नृत्य की शिक्षा ग्रहण की है। तीनों ही नृत्य गुरुओं की कथक के प्रति दृष्टि में क्या भिन्नता आपने देखी ?
पंडित मोहनराव कल्याणपुरकर जी से कभी सीधे सीखने का अवसर नहीं मिला, लेकिन वह मेरी गुरु रोहिणी जी के पास आते थे और अपने गुरु के माध्यम से ही मुझे उनके सबक मिलते रहे। मैं उनसे बहुत प्रभावित हुई। मैं जब 16 वर्ष की थी तभी से पंडित बिरजू महाराज जी का नाम सुन रखा था।
उनसे काफी कुछ सीखने को मिला
पंडित जी वर्ष में एक बार पुणे जरूर आते थे। उनसे काफी कुछ सीखने को मिला, लेकिन मैं उनकी नृत्य शैली को नहीं अपनाती क्योंकि मेरी काफी लंबी तालीम अपने गुरुओं से हुई है। मैंने प्रसिद्ध तबला वादक पंडित सुरेश तलवलकर जी से लय-ताल की शिक्षा भी पाई है।
अपने नृत्य में आपने लगातार प्रयोग किए हैं, जिनमें कई बार विश्व संगीत का उपयोग भी होता है, मसलन जैज रचनाओं पर की गई नृत्य संरचनाएं। आपकी कुछ प्रस्तुतियों में कला के दूसरे माध्यम भी शामिल हैं। क्या ऐसी उदारता कथक के स्वभाव को स्वीकार्य होती है, इससे उसके मूल स्वरूप को कोई खतरा नहीं होता ?
सभी बड़े कलाकारों ने परंपरा को एक प्रवाह के रूप में ही माना है और इसमें कलाकार को अपना कोना मिलना ही चाहिए। मैंने कई ऐसे तालों का, बंदिशों का, तरानों का प्रयोग किया जो मैंने सीखा नहीं था। मैंने रातंजनकर जी की, अभिषेकी जी की, जसराज जी की बंदिशों का प्रयोग किया क्योंकि मेरा मानना है कि ये चीजें भले ही कथक में अभी तक न आई हों लेकिन संगीत के व्यापक दायरे में तो शामिल हैं हीं।
नई दृष्टि से देखने का अवसर मिला
मैंने विश्व संगीत के साथ कम से कम 65 कार्यक्रम किए और मुझे लगा कि संगीत की भाषा तो सार्वभौमिक है। उनकी जो स्वरावली या ताल है, उससे मुझे कथक को नई दृष्टि से देखने का अवसर मिला। मैंने अपने प्रयोग हमेशा संगीत विद्वानों को दिखाए, उनसे चर्चा की।
सभी कलाएं आपस में बहनें
बात उनकी स्वीकृति से ही मैं इन रास्तों पर आगे बढ़ी। जहां तक दूसरे कला माध्यमों को शामिल करने की है, मुझे लगता है कि एक पड़ाव पर जाकर ऐसा है कि सभी कलाएं आपस में बहनें हैं। इन प्रयोगों लगता से मेरे कथक की भाषा और समृद्ध होती गई।
बताते हैं कि शंभू महाराज कक्षा शुरू करने से पहले विद्यार्थियों को उस दिन की खबरें बताते यानी वह उन्हें समाज में हो रही चीजों के बारे में सजग रखना चाहते थे। अक्सर कथक कृष्ण की कथाओं तक ही सीमित दिखता है, जबकि आप अपनी नृत्य प्रस्तुतियों में नए-नए विषय उठाती हैं। शास्त्रीय नृत्यों को समकालीन समाज के विषयों से परहेज क्यों रहा है ?
कथक का दायरा बहुत बड़ा है, इसे सीमित नहीं करना चाहिए। सवाल यह है कि हम किस नजरिए से देख रहे हैं। कथक कई दौर से गुजरा है, मुगलों के शासन में इसमें कई परिवर्तन हुए। मेरा मानना है कि इन सबसे गुजर कर कथक लचीला हो गया।
संगीत चिकित्सा पर कई लोग काम कर रहे हैं। आपने भी मानसिक रूप से अविकसित बच्चों के बीच कथक के साथ काम किया है। संगीत चिकित्सा का क्या भविष्य देखती हैं?
इस दिशा में बहुत काम करने की आवश्यकता है। कला से एकाग्रता बढ़ती है, सम्प्रेषण बढ़ता है, समन्वय बढ़ता है। ऐसे बच्चों में इन्हीं बातों की तो कमी है। मुझे बहुत अच्छे परिणाम मिले। संगीत प्रदर्शन कला तक ही सीमित नहीं है। इसमें बहुत संभावनाएं हैं।
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