बॉलीवुड की चमक-दमक भरी दुनिया में मानव कौल एक अलग ही रंग भरते हैं। सारी तड़क-भड़क और भीड़-भाड़ से दूर अपनी रचनाधर्मिता में मगन मानव कहते हैं कि कला और किताबों की संगत उन्हें इतनी पसंद है कि किसी और के साथ की चाहत ही नहीं। इन दिनों वह अपनी सुपरनैचरल थ्रिलर फिल्म 'बारामूला' को लेकर चर्चा में हैं। ऐसे में, हमने उनसे की खास बातचीत:
बारामूला आपकी जन्मभूमि है, जिसे आपको बचपन में छोड़ना पड़ा। सालों बाद जब आप जवान होकर वहां लौटे तो वो बचपन कहां-कहां दिखा? क्या यादें ताजा हुई? क्या नए अनुभव जुड़े?
कश्मीर बहुत ही अद्भुत जगह है कि इतने सालों बाद जाने के बाद भी आपको वो पॉकेट्स दिख जाते हैं कि ये बिल्कुल वैसा का वैसा है जैसा मैंने बचपन में जिया था। जैसे, मेरा जो स्कूल था, उसकी बारामूला में एक नई बिल्डिंग बन गई है, लेकिन बारामूला ख्वाजा बाग में हमारी जो पुरानी बिल्डिंग थी, जो लकड़ी का ढांचा था, वो वैसा ही है तो मैं जब उस स्कूल में गया और जब उन लकड़ी की सीढ़ियों से होता हुआ अपने क्लासरूम में गया तो मुझे बहुत अच्छा लगा कि हर चीज सीमेंट की नहीं हो गई है। इसके अलावा, मुझे कश्मीर की सर्दियां बहुत अच्छा लगती हैं। जब मुझे पता चला कि यह फिल्म हम सर्दियों में माइनस तापमान में शूट करने वाले हैं तो मैं एक्साइटेड हो गया। हमें बहुत बर्फ भी मिली। बर्फ के चक्कर में हमारा शूट भी रुका लेकिन इसे बनाने में बेहद मजा आया।
आपके जीवन के शुरुआती संघर्षों, जैसे बचपन में कश्मीर से निष्कासन, एमपी के होशंगाबाद में आर्थिक तंगी में बड़े होना, फिर मुंबई की चॉल की जिंदगी, इन सबने आपके भीतर के कलाकार को कितना ठोका-पीटा, तराशा-निखारा?
मुझे नहीं लगता है कि आपके जीवन या गरीबी से इस पर फर्क पड़ता है। फर्क पड़ता है आपके इंट्रेस्ट से कि आप उस समय कर क्या रहे थे। जैसे, जब मैं चॉल में था तो मेरे हाथ में विनोद कुमार शुक्ल, निर्मल वर्मा की किताबें थीं। वह मेरा एंटरटेनमेंट था। मैंने गोर्की और दोस्तोवस्की और सॉल बेलो जैसे लेखकों को उसी वक्त पढ़ा है जब मेरे पास बहुत वक्त होता था और मैं दीवारें देखने के बजाय किताबें देखता था। मेरा मानना है कि आपके संघर्ष से कुछ नहीं होता। ऐसा होता तो अमीर घरों के बच्चे आर्टिस्ट ही नहीं बन पाते। सत्यजीत रे तो काफी अच्छे परिवार से थे, उन्होंने पाथेर पांचाली कैसे बनाई? तो आप वही करते हैं जिसके लिए एक्साइटेड होते हैं। मैं हमेशा से साहित्य, सिनेमा, पेंटिंग को लेकर बहुत उत्साहित रहता था। मैं इन चीजों के पीछे भागता रहा हूं। आज थोड़े पैसे आ गए हैं तो मैं यूरोप भी जाता हूं तो अमूमन किसी राइटर या पेंटर की ही खोज में रहता हूं कि वे कहां रहते थे, कैसे रहते थे। मैं कभी टूरिस्ट जगहें देखने नहीं जाता। उसमें मेरी कोई रुचि नहीं है।
अमूमन जो बचपन में तंगी देखते हैं, वे पैसे की अहमियत ज्यादा समझते हैं। जैसे, शाहरुख खान हमेशा पैसे कमाने की सीख देते हैं। आपमें धन का मोह नहीं दिखता। कैसे?
सच कहूं तो जो जिंदगी मैंने चॉल में बिताई है, वो मेरी जिंदगी के सबसे अच्छे दिन हैं। हम कितना हंसते थे। हंस-हंसकर पागल हो जाते थे क्योंकि खोने के लिए कुछ नहीं था। हमें कुछ भी मिलता था तो हम खुश हो जाते थे कि अरे, ये कैसे मिल गया। हम तो यही सोचकर आए थे कि हम फेलियर ही हैं। तब कहीं अच्छा खाना भी मिल जाए तो ऐसा लगता है कि गुरु आज ये मिल गया, आगे काफी समय तक नहीं मिलेगा तो आप उसको एंजॉय करते हैं। ये नहीं सोचते कि आगे क्या होगा। मैं आज भी चॉल में चला जाऊं और वहां रहने लगूं तो मुझे बहुत मजा आएगा। मतलब, मैं ऐसे मिशन पर थोड़ी निकला हूं कि अमीर होता चला जाऊंगा। मेरा तो बस यही है कि अगला दिन अच्छा बीते और ऐसे ही दिन बीतते जाएं। फिर, अगर आप अपना काम जानते हैं तो पैसा तो आता रहेगा।
आपने 9 साल में 15 किताबें लिख डाली हैं। इतना कैसे लिख लेते हैं?
मेरे पास बहुत टाइम है। मेरी सोशल लाइफ जीरो है, मैं साढ़े दस बजे सो जाता हूं। सुबह साढ़े चार-पांच उठता हूं तो उठकर क्या करेगा आदमी। लिखेगा और म्यूजिक सुनेगा। मुझे प्यार है इस जिंदगी से। मुझे एक हद के बाद लोगों से बहुत ज्यादा मिलना-जुलना पसंद नहीं भी नहीं है।
आपने अपने लेखन की विरासत तो बहुत विस्तृत कर ली है, मगर कभी परिवार रूपी विरासत को आगे बढ़ाने की चाह नहीं जगी?
कभी नहीं। इतने इंसान हैं दुनिया में। आपको पता है कि कितने इंसान हैं। कितनी भीड़ है तो मैं क्यों और इसे बढ़ाऊं। मेरा योगदान इस दुनिया में यही है कि मेरे कारण कोई और नहीं आएगा। इसके अलावा मेरा कोई और योगदान नहीं है। मेरी विरासत वगैरह में कोई रुचि नहीं है। ये किताबें वगैरह भी जब तक मैं जिंदा हूं, मुझे अच्छा लग रहा है। मेरे जाने के बाद आप जला दें सबकुछ। आग लगा दो सब चीजों में, मुझे परवाह नहीं है।
बारामूला आपकी जन्मभूमि है, जिसे आपको बचपन में छोड़ना पड़ा। सालों बाद जब आप जवान होकर वहां लौटे तो वो बचपन कहां-कहां दिखा? क्या यादें ताजा हुई? क्या नए अनुभव जुड़े?
कश्मीर बहुत ही अद्भुत जगह है कि इतने सालों बाद जाने के बाद भी आपको वो पॉकेट्स दिख जाते हैं कि ये बिल्कुल वैसा का वैसा है जैसा मैंने बचपन में जिया था। जैसे, मेरा जो स्कूल था, उसकी बारामूला में एक नई बिल्डिंग बन गई है, लेकिन बारामूला ख्वाजा बाग में हमारी जो पुरानी बिल्डिंग थी, जो लकड़ी का ढांचा था, वो वैसा ही है तो मैं जब उस स्कूल में गया और जब उन लकड़ी की सीढ़ियों से होता हुआ अपने क्लासरूम में गया तो मुझे बहुत अच्छा लगा कि हर चीज सीमेंट की नहीं हो गई है। इसके अलावा, मुझे कश्मीर की सर्दियां बहुत अच्छा लगती हैं। जब मुझे पता चला कि यह फिल्म हम सर्दियों में माइनस तापमान में शूट करने वाले हैं तो मैं एक्साइटेड हो गया। हमें बहुत बर्फ भी मिली। बर्फ के चक्कर में हमारा शूट भी रुका लेकिन इसे बनाने में बेहद मजा आया।
आपके जीवन के शुरुआती संघर्षों, जैसे बचपन में कश्मीर से निष्कासन, एमपी के होशंगाबाद में आर्थिक तंगी में बड़े होना, फिर मुंबई की चॉल की जिंदगी, इन सबने आपके भीतर के कलाकार को कितना ठोका-पीटा, तराशा-निखारा?
मुझे नहीं लगता है कि आपके जीवन या गरीबी से इस पर फर्क पड़ता है। फर्क पड़ता है आपके इंट्रेस्ट से कि आप उस समय कर क्या रहे थे। जैसे, जब मैं चॉल में था तो मेरे हाथ में विनोद कुमार शुक्ल, निर्मल वर्मा की किताबें थीं। वह मेरा एंटरटेनमेंट था। मैंने गोर्की और दोस्तोवस्की और सॉल बेलो जैसे लेखकों को उसी वक्त पढ़ा है जब मेरे पास बहुत वक्त होता था और मैं दीवारें देखने के बजाय किताबें देखता था। मेरा मानना है कि आपके संघर्ष से कुछ नहीं होता। ऐसा होता तो अमीर घरों के बच्चे आर्टिस्ट ही नहीं बन पाते। सत्यजीत रे तो काफी अच्छे परिवार से थे, उन्होंने पाथेर पांचाली कैसे बनाई? तो आप वही करते हैं जिसके लिए एक्साइटेड होते हैं। मैं हमेशा से साहित्य, सिनेमा, पेंटिंग को लेकर बहुत उत्साहित रहता था। मैं इन चीजों के पीछे भागता रहा हूं। आज थोड़े पैसे आ गए हैं तो मैं यूरोप भी जाता हूं तो अमूमन किसी राइटर या पेंटर की ही खोज में रहता हूं कि वे कहां रहते थे, कैसे रहते थे। मैं कभी टूरिस्ट जगहें देखने नहीं जाता। उसमें मेरी कोई रुचि नहीं है।
अमूमन जो बचपन में तंगी देखते हैं, वे पैसे की अहमियत ज्यादा समझते हैं। जैसे, शाहरुख खान हमेशा पैसे कमाने की सीख देते हैं। आपमें धन का मोह नहीं दिखता। कैसे?
सच कहूं तो जो जिंदगी मैंने चॉल में बिताई है, वो मेरी जिंदगी के सबसे अच्छे दिन हैं। हम कितना हंसते थे। हंस-हंसकर पागल हो जाते थे क्योंकि खोने के लिए कुछ नहीं था। हमें कुछ भी मिलता था तो हम खुश हो जाते थे कि अरे, ये कैसे मिल गया। हम तो यही सोचकर आए थे कि हम फेलियर ही हैं। तब कहीं अच्छा खाना भी मिल जाए तो ऐसा लगता है कि गुरु आज ये मिल गया, आगे काफी समय तक नहीं मिलेगा तो आप उसको एंजॉय करते हैं। ये नहीं सोचते कि आगे क्या होगा। मैं आज भी चॉल में चला जाऊं और वहां रहने लगूं तो मुझे बहुत मजा आएगा। मतलब, मैं ऐसे मिशन पर थोड़ी निकला हूं कि अमीर होता चला जाऊंगा। मेरा तो बस यही है कि अगला दिन अच्छा बीते और ऐसे ही दिन बीतते जाएं। फिर, अगर आप अपना काम जानते हैं तो पैसा तो आता रहेगा।
आपने 9 साल में 15 किताबें लिख डाली हैं। इतना कैसे लिख लेते हैं?
मेरे पास बहुत टाइम है। मेरी सोशल लाइफ जीरो है, मैं साढ़े दस बजे सो जाता हूं। सुबह साढ़े चार-पांच उठता हूं तो उठकर क्या करेगा आदमी। लिखेगा और म्यूजिक सुनेगा। मुझे प्यार है इस जिंदगी से। मुझे एक हद के बाद लोगों से बहुत ज्यादा मिलना-जुलना पसंद नहीं भी नहीं है।
आपने अपने लेखन की विरासत तो बहुत विस्तृत कर ली है, मगर कभी परिवार रूपी विरासत को आगे बढ़ाने की चाह नहीं जगी?
कभी नहीं। इतने इंसान हैं दुनिया में। आपको पता है कि कितने इंसान हैं। कितनी भीड़ है तो मैं क्यों और इसे बढ़ाऊं। मेरा योगदान इस दुनिया में यही है कि मेरे कारण कोई और नहीं आएगा। इसके अलावा मेरा कोई और योगदान नहीं है। मेरी विरासत वगैरह में कोई रुचि नहीं है। ये किताबें वगैरह भी जब तक मैं जिंदा हूं, मुझे अच्छा लग रहा है। मेरे जाने के बाद आप जला दें सबकुछ। आग लगा दो सब चीजों में, मुझे परवाह नहीं है।
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